खत्म होने की कगार पर एक युग.... - अतुल मलिकराम

 



कस्तूरी मृग की कस्तूरी के समान लालसा से परिपूर्ण जब मैं अतीत की खुशबू लेने बैठा, तो पाया कि रोज रात को दादी की लोरी सुनकर सोने के बाद सुबह आँख खुलते समय मम्मी के हाथ पर लेटा हुआ मैं और शायद हर बच्चा इसी सुकून भरे प्रश्न के साथ उठा करता था कि आखिर मैं यहाँ कैसे आया? खैर, पापा के हाथों से ब्रश करके और दो बिस्किट के साथ चाय पीकर दादाजी के साथ सुबह की सैर, आने वाले पूरे दिन की थकान को दो-चार उबासियों के साथ ही खत्म कर देती थी। वापिस घर आकर मम्मी के हाथों से नहाकर, दादी का हाथ पकड़कर पास वाली काकी के घर फूल तोड़ने जाना और घर आकर उनकी साड़ी का पल्लू पकड़कर तुलसी कोट के गोल-गोल चक्कर लगाना, जिसे बड़े लोगों की भाषा में परिक्रमा कहते हैं, बड़ा ही अविस्मरणीय था। 

प्रसाद मिलने की लालसा के साथ, घर की आगे वाली गली में दुर्गा माता के मंदिर तक दादी के साथ मेरी नन्हें-नन्हें पैरों वाली दौड़ मानों किसी धावक को पीछे छोड़ने जैसी थी। रास्ते में मिलने वालों से बात करने, उनका सुख दु:ख पूछने, दोनो हाथ जोड़कर प्रणाम करने वाले संस्कार जीवन पर्यन्त हमारे साथ रहने वाले हैं। सुबह-सवेरे सामने आती गिलहरी की पूँछ पकड़ने उसके पीछे-पीछे भागना, मानों इस साल तो मुझे परीक्षा में अव्वल आने से कोई नहीं रोक सकता। फिर इस पर दादी के हाथों से दही-शक्कर खाकर इम्तिहान देने जाना तो जैसे सोने पर सुहागा था। हल्की-सी हरारत पर मेरी नज़र उतारना मेरे लिए जैसे धरती पर फरिश्ते की अनुभूति हुआ करती थी। 

दादाजी के साथ हर शाम को छत पर जाकर पौधों को पानी देना और दिया-अगरबत्ती करने के बाद घर के आँगन में बैठकर दादी के साथ तोतली आवाज में भजन गाना.... गर्मियों में माँ और दादी के हाथों से बनें अचार, पापड़ और घर के कुटे मसाले पूरे साल घर को स्वादिष्ट सुगंध से भर दिया करते थे। सिल्ले पर पीसी टमाटर की चटनी और देशी साग-भाजियों का तो स्वाद मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। वो लू से बचने के लिए छोटा-सा प्याज लेकर घर से निकलना, वो बड़े-बड़े घाव और दर्द को घरेलु नुस्खों से छूमंतर कर देने वाला जादू अब कहाँ सभी को आता है?

रात को जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठकर सबसे पहले भगवान का चेहरा देखने वाली आदत, पड़ोस वाले काका के घर जाकर पूरे मोहल्ले का छाछ पीकर रामायण और भारत का मैच, दादाजी का नया चश्मा आ जाने के बाद भी सालों-साल पुराने चश्मे से वहीं अटूट स्नेह, अपने पुराने फोन पर मोहित पापा, फोन नंबर की डायरियाँ मेंटेन करने और रॉन्ग नम्बर से भी सहजता से बात करने वाली माँ, आने वाले कई महीनों की पूर्णिमा और एकादशी मुँह जबानी याद रखने वाली दादी माँ वाले सभी गुण नई पीढ़ी को कहाँ नसीब हुए हैं। मोबाइल के पीछे छिपी छोटी-सी दुनिया ने इस अनमोल जीवन का बोरिया-बिस्तर बाँधकर इसे रवानगी दे दी है, जो हमसे रूठकर जाने के लिए दरवाजे पर जा खड़ी हुई है। 

जीवन के आनंद तो उस ज़माने में हुआ करते थे, जो अब विलुप्त होने की कगार पर हैं। एक युग विलुप्त होने की कगार पर है। हमें इस बात का अंदाज़ा भी नहीं है कि ज्ञान का असीमित भंडार लिए ये सभी लोग धीरे-धीरे हमारा साथ छोड़कर जा रहे हैं। सादगीपूर्ण और प्रेरणा देने वाला, मिलावट और बनावट रहित तथा सबकी फिक्र करने वाला आत्मीय जीवन अब धीरे-धीरे खत्म होने जा रहा है, जो अपने साथ जीवन की सादगी और अपनी अमिट छाप भी साथ ले जाएगा। हम चाहकर भी उनकी सीख को अपने में ढालने में अक्षम होंगे, क्योंकि तब तक हम उन्हें खो चुके होंगे। वे हमें बहुत कुछ देना चाहते हैं, लेकिन शायद हम ही लेना नहीं चाहते हैं। अभी-भी समय है, कुछ सीख लीजिए, ताकि आने वाली पीढ़ियों को आप यह धरोहर, यह विरासत अमानत के रूप में सौंप सकें।

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